काशी का घाट, शोक में भी उल्लास का गीत और अध्यात्म... शिवत्व में विलीन हो गए पंडित छन्नूलाल मिश्र

काशी का घाट, शोक में भी उल्लास का गीत और अध्यात्म... शिवत्व में विलीन हो गए पंडित छन्नूलाल मिश्र

10/2/2025, 2:42:59 AM

वाराणसी का घाट... रंग-अबीर, गुलाल में रंगे हुए चेहरे हैं. कहीं फाग-कहीं बिरहा की गूंज है तो कहीं है छायी मदहोशी. इतने में ये सारे रंग किसी सफेद गुबार में दब जाते हैं. अब हर तरफ अलग ही सफेदी छायी है. इन्हीं के बीच में से गूंज उठता है... लखि सुंदर फगुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के, चिता भस्म भर झोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी यानी सुंदर फागुनी छटा को देखकर, मन से अलग-अलग रंगों के गुलाल हटा दिए हैं, उन्हें बस एक ही सफेदी में रंग लिया है और चिता की ऐसी सफेद भस्म की झोली भरकर दिगंबर मसान के बीच कूद पड़े हैं और जम कर होली खेल रहे हैं. इन पंक्तियों में उल्लास और अध्यात्म का जो संगम है, उसके सुंदर संयोजन की वजह अगर कोई है तो वे हैं प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक छन्नूलाल मिश्र... अपने आकार, आलाप और शब्दों के मींड-खटक से वो ऐसा उल्हास रचते हैं कि मानो दिगंबर बाबा भोले भंडारी सच में राख रूप शृंगार कर बनारसी अघोरी हुरियारों के बीच चले आए हैं और सारी सृष्टि को सिर्फ अपनी दिव्य सफेदी में रंग देना चाहते हैं. ये जादू, ये संगीत, ये दिव्य अनुभूति पैदा करने का हुनर रखते थे पंडित छन्नूलाल मिश्र... उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक गांव है हरिहरपुर, यहां 3 अगस्त 1936 की एक दोपहर पं. बद्रीप्रसाद मिश्रा के घर किलकारी गूंजी. बालक हुआ है इसलिए फूल-कांसे की बड़ी-बड़ी थालियां बजाई गईं और इस बड़े थाल समारोह से बालक ने ऐसे गुंजित स्वर में रूदन किया कि पिता समझ गए कि विरासत को बढ़ाने वाला आ गया है. प्यार से बालक का एक बार जो नाम पड़ा छन्नू तो वे छन्नूलाल ही हो गए. संगीत विरासत में मिला, सुर विरासत में मिले, साधना करने की शक्ति विरासत में मिली और विरासत की इस पूंजी को संभालकर चलते हुए छन्नूलाल मिश्र वाराणसी की ओर बढ़े. यों समझिए कि जैसे कबीर को सीढ़ीयों पर गुरु रामानंद मिले थे, वैसे ही छन्नूलाल मिश्र ने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान के पांव पखारे और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया, लेकिन भाग्य का लिखा अभी बाकी था. एक दिन युवा छन्नूलाल को गाते हुए प्रसिद्ध संगीतकार स्वर्गीय पद्मभूषण ठाकुर जयदेव सिंह ने सुना और उनकी अपार क्षमता को पहचानकर उन्हें अपने मार्गदर्शन में ले लिया. इससे गुरु-शिष्य परंपरा का सम्मानित रूप विकसित हुआ, जिसमें शिक्षक और शिष्य के बीच का बंधन मजबूत हुआ और पंडित जी की गायकी उस आयाम पर पहुंची, जहां गायकी-गायकी नहीं रह जाती है, मंत्र बन जाती है. ऐसा मंत्र जो सिद्ध हो जाए तो बैठे-बैठे ध्यान की अवस्था में ले जाता है.