बिहार चुनाव पर कभी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग का लगा 'दाग', 'अंधेरे समय' से फिर बाहर निकला यह राज्य

10/2/2025, 8:39:28 AM
Bihar Assembly Election: बिहार को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है। यहीं के वैशाली गणराज्य से लोकतंत्र की सुबह हुई जिसके प्रकाश धीरे-धीरे चारो ओर फैल गया। आजादी के बाद बिहार के चुनावों ने देश भर को प्रभावित किया। बिहार की अनोखी चुनावी रंगत ने जहां इसकी एक अलग पहचान गढ़ी तो चुनावी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और इस तरह के अन्य अपराधों से इसकी छवि दागदार भी हुई। खासकर 1990 का दशक चुनावी हिंसा के लिए ज्यादा कुख्यात रहा। चुनावी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और बाहुबलियों की दबंगई से बिहार के चुनाव 'लहुलूहान' होते रहे। इस दौर में चुनाव आयोग के लिए स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करारा एक चुनौती बन गया था लेकिन इस 'अंधेरे काल खंड' का भी अंत हुआ। आज बिहार में अन्य राज्यों की तरह ही स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होते हैं और मतदाता बिना किसी डर और दबाव के अपना जनप्रतिनिधि चुनते हैं। बहरहाल, हम यहां बिहार चुनाव के उस 'अंधेरे युग' की चर्चा करेंगे। बिहार में मौटे तौर पर 1990 से 2004 तक का चुनावी इतिहास हत्या, लूट, आगजनी, अपहरण, धमकी और अन्य अपराधों से भरा पड़ा है। अपराध की ये घटनाएं लोगों में निराशा और हताशा भर देती थीं। राजनीतिक संरक्षण वाले दबंगों और बाहुबलियों के हौसले बुलंद थे। चुनाव का प्रभावित और मतदान अपने पक्ष में कराने के लिए इनका खूब इस्तेमाल होता था। लोग इनके डर से वहीं वोट डालते थे, जिसकी तरफ इनका इशारा होता था। मतदाताओं के लिए यह दशक हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा। उम्मीदवारों के लिए भी यह बेहद कष्टदायक समय था क्योंकि मतदान निष्पक्ष हो पाएगा कि नहीं, इसकी आशंका हमेशा इनके मन में बनी रहती थी। चुनाव में उम्मीदवार या तो जीतते थे या हारते थे लेकिन मतदाता हमेशा हारता था। रिपोर्टों के मुताबिक आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 1990 से 2004 के बीच नौ चुनावों में चुनावी हिंसा के कारण 641 लोगों की जान गई। इनमें से सिर्फ 2001 के पंचायत चुनावों में, जो बिहार में 23 साल के लंबे अंतराल के बाद हुए थे, 196 लोग मारे गए। 2004 के लोकसभा चुनाव में 28 लोगों की मौत हुई। ये सभी लोग या तो चुनाव से पहले, मतदान के दिन, या फिर कई मामलों में, किसी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव खत्म होने के बाद मारे गए। अपराध की ये हटनाएं कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त होने की दुखद कहानी कहती हैं। अब इन आंकड़ों की तुलना 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों और 2005, 2010 और 2015 के विधानसभा चुनावों से यदि करें तो हिंसा के मामलों में अंतर साफ दिखेगा। 2009 और 2014 के दोनों लोकसभा चुनावों में हिंसक घटनाओं में आठ लोगों की मौत हुई और तीन विधानसभा चुनावों में कुल सात लोगों की जान गई। 2015 के अंतिम विधानसभा चुनाव में ऐसी घटनाओं में एक भी मौत नहीं हुई। बिहार में 2005 के बाद चुनावों में हिंसा एक तरह से थम गई। इसके बाद के चुनाव हिंसा रहित और स्वतंत्र एवं पारदर्शी तरीके से होने लगे। बूथ लूटने या उस पर कब्जा करने की घटनाएं खत्म हो गईं। बाहुबली नेता या तो जेल पहुंच गए या हिंसा से किनारा कर लिया। बिहार के चुनावी हिंसा की बड़ी घटनाएं बूथ लूटने और उस पर कब्जा करने से जुड़ी होती थीं। इसकी परंपरा 1927 से चली आ रही थी। जब बिहार (और शायद भारत) के निर्वाचन इतिहास में पहली बार जिला बोर्ड चुनावों के दौरान पुनर्मतदान का आदेश दिया गया था। हालांकि इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। और फिर यह नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया। शुरुआत में बूथ लूट कुछ लोगों का 'धंधा' था, लेकिन धीरे-धीरे यह अपराधियों के हाथों में चला गया, जिन्होंने बाद में केवल अपने 'मालिकों' के लिए काम करने के बजाय खुद भी चुनाव लड़ना शुरू कर दिया। इससे राजनीतिक संस्थाओं की छवि पहले खराब हुई और फिर पूरी तरह ध्वस्त हो गई। बूथ लूट और उसके चलते पुनर्मतदान तथा चुनाव रद्द होना आम बात बन गई थी। पटना में 1991 और 1998 में दो बार लोकसभा चुनाव रद्द हुए। यह तो राजधानी की हालत थी, सोचिए छोटे कस्बों और गांवों में क्या होता होगा। निर्वाचन अधिकारियों द्वारा चुनाव आयोग और राज्य सरकार को भेजी गई रिपोर्टों की विस्तृत फाइलें आज भी मौजूद हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग के चुनाव रद्द करने के फैसले को कई बार चुनौती भी दी गई। लेकिन वे फैसले सिर्फ और सिर्फ निर्वाचन अधिकारियों की रिपोर्ट पर आधारित होते थे। 2004 में छपरा में चुनाव को रद्द करना चुनाव आयोग के लिए बड़ी कठिनाई का काम रहा। अंततः चुनाव रद्द हुआ। मीडिया और सरकारी अभिलेखों में और भी कई घटनाएं दर्ज हैं। एक उल्लेखनीय घटना वह है जब 1998 के लोकसभा चुनाव में दो दर्जन विधायक, जिनमें मंत्री भी शामिल थे, बूथ कैप्चरिंग करते पकड़े गए थे। और भी भयावह तस्वीर तब उभरती है जब यह देखा जाता है कि बिहार में कितनी बार पुनर्मतदान का आदेश देना पड़ा। कल्पना कीजिए, सिर्फ एक राज्य -- बिहार में और सिर्फ एक चुनाव -- 1998 के लोकसभा चुनाव में, 4,995 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ। इसकी तुलना 1952 के लोकसभा चुनावों से कीजिए जब सिर्फ 26 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ था। इस प्रकार, बूथ लूट एक संगठित 'धंधा' बन गई और पुनर्मतदान के आदेशों की संख्या देश के पहले चुनाव के 45 साल बाद चौगुनी हो गई। विधानसभा चुनाव भी इससे पीछे नहीं थे। 1995 के विधानसभा चुनावों में 1,668 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ। इसी तरह 2000 के विधानसभा चुनावों में 1,420 बूथों पर पुनर्मतदान हुआ। देश और दुनिया की ताजा ख़बरें (Hindi News) पढ़ें हिंदी में और देखें चुनाव से जुड़ी सभी छोटी बड़ी न्यूज़ Times Now Navbharat Live TV पर। भारत के चुनाव (Elections) अपडेट और विधानसभा चुनाव के प्रमुख समाचार पाएं Times Now Navbharat पर सबसे पहले ।